है अमिट सामर्थ्य मुझमें याचना मैं क्यो करुँगा
रुद्र हूँ विष छोड़ मधु की कामना मैं क्यों करुँगा..
इन्द्र को निज अस्थि पंजर जब कि मैंने दे दिया था
घोर विष का पात्र उस दिन एक क्षण में ले लिया था
दे चुका जब प्राण कितनी बार जग का त्राण करने
फिर भला विध्वंस की कटु कल्पना मैं क्यों करुँगा ॥१॥
फूँक दी निज देह भी जब विश्व का कल्याण करने
झोंक डाला आज भी सर्वस्व युग निर्माण करने
जगमगा दी झोपड़ी के दीप से अट्टलिकाएँ
फिर वही दीपक तिमिर की साधना मै क्यों करुँगा॥२॥
विश्व के पीड़ित मनुज को जब खुला है द्वार मेरा
दूध साँपों को पिलाता स्नेहमय आगार मेरा
जीतकर भी शत्रु को जब मैं दया का दान देता
देश में ही द्वेष की फिर भावना मैं भरुँगा ॥३॥
मार दी ठोकर विभव को बन गया क्षण में भिखारी
किन्तु फिर भी जल रही क्यों द्वेष से आँखे तुम्हारी
आज मानव के ह्रदय पर राज्य जब मैं कर रहा हूँ
फिर क्षणिक साम्राज्य की भी कामना मैं क्यों करुँगा ॥४।
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